- ActivityRecentSanjay likes मृगतृष्णा : (लघु कहानी) «...Sanjay followed Priyanka Rathore.
- सहजता, सौम्यता और प्यार की प्रतिमूर्ति सरीखी। उसकी बातें नपी, तुली, संक्षिप्त और बेहद सारगर्भित। उफ़ ! वह और उसकी बातें। दोनों ही मुझे बेहद अच्छी लगती थी। लगाव की यही अंतिम और एकमात्र कड़ी थी। मेरे मासूमियत भरे जज्बातों की वह कद्र करती थी। अक्सर कहती थी उम्र मायने नहीं रखती। पर उसके जज्बात ह्रदय से रेंगते - रेंगते शरीर तक पहुंच जाएंगे मैंने कब सोचा था ! उस दिन वह जितनी सहज थी मैं उतना ही हस्तप्रद और... निशब्द। मैंने टियूशन छोड़ दिया ...करीब 15 दिन बाद वह खुद घर पर आ गई। तुम 12 साल के होकर मुझसे प्यार कर सकते हो और मैं 27 की होकर भी तुमसे सेक्स क्यों नहीं कर सकती ?
यह उसके अंतिम शब्द थे। समझ में नही आया था कि यह प्यार की शुरुयात है या रिश्तों का अंत। 15 साल हो गए। वह कभी दिखाई नहीं दी ... मैं आज भी जानना चाहता हूं कि ... क्या सचमुच उसके लिए उम्र मायने नहीं रखती थी।
-संजय पाल
(नोट : यह महज कोरी कल्पना है, जीवन से सम्मेलित करके न देखें।)See More - मृगतृष्णा तो रेगिस्तान में होती है। लेकिन मैंने तो तुम्हारी आँखों में देखा था। परन्तु वह प्यार नहीं महज प्यार का भरम मात्र था। न जाने कब तुम्हारे ह्रदय से प्रेम की बरसात हुई ... और न जाने कब तुम्हारे ही ह्रदय के रेगिस्तान में समां गई मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला। कुछ ऐसी ही दो-चार पंक्तियां लिखी थी मैंने उसके जाने के बाद। ...और आज चार साल बाद वह एकाएक सामने आ गई। पल भर के लिए लगा मुझे दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुशी मिल गई। पर सच तो यह है कि वही पुराने घाव फिर से हरे हो गए हैं। कम से कम चार साल के लिए।
-संजय पाल
(नोट : यह महज कोरी कल्पना है, प्लीज किसी के जीवन से सम्मेलित करके न देखें।) - ऐसा लगता है कि अभी-अभी नींद से जगा हूं / और माँ कहती है तुम चार दिनों से सोये नहीं / आँख मलते हुए सो जाता हूँ / माँ की गोद में आँचल ओढ़कर / माँ की थपकियों के बीच मेरी बोझिल आँखे / कभी माँ को देखती हैं / कभी मुझसे पूछती हैं / सच जानना चाहती हैं / मैं इतना ही कह पाता हूं / मुझसे ज्यादा मुझे माँ जानती है / माँ अपनी हथेली मेरी आँखों पर रख देती है / मेरी नींद में विध्न उसे तनिक भी गवांरा नहीं / और मैं सो जाता हूं एक गहरी नींद में / बदहवास / बेखबर / सबको / खुदको / भूलकर।
-संजय पाल - सभ्यता / संस्कृति / इतिहास / ...और वह तमाम दस्तावेज / जिनमें मानवता के गुडगान मिलें / कितने ढकोसले लगते हैं ...कितने बेहियात / जब एक इन्सान-एक इन्सान की रोटी झपटता है / जब एक इन्सान-एक इन्सान को खरीदता-बेचता है / जब एक इन्सान-एक इन्सान को मारता-कटता है / जब एक इन्सान-इन्सान होकर इन्सान नहीं होता / कितना भिभत्स / कितना घिर्डित / कितना भयावह / बन चुका है वर्तमान / बहुत हो चुका / एक बार फिर से / मानवता को जगाना होगा / जानवर से इन्सान महज कुछ शब्द बनें / इन्सान नहीं / उन जानवरों को हमें अब आग से भगाना होगा।
जय हिन्द ! बची-खुची-बासी आजादी आपको मुबारक हो !
-संजय पाल !